Saturday, May 6, 2017

जख़्म

जख़्म पे जख़्म दिए जा रहे हैं लोग अपने,
आखिर मैं बेबस हो इसे कब तलक सहूँगा।

कभी लोग आतुर होंगे सुनने को कुछ शब्द मेरे,
लेकिन ज़ुबाँ  खामोश रहेगी मैं कुछ नहीं कहूँगा।  

और पढ़ेंगे मेरी लिखी हुई ये बातें सब एक दिन,
शायद, मैं उन्हें याद तब आऊंगा जब मैं नहीं रहूँगा। 
                                    

                                     -प्रदीप कुमार तिवारी "साथी"

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