विद्यार्थियों के मन की व्यथा
बालक से दुगुना बस्ता है, और मीलों का लम्बा रस्ता है,
मात - पिता गुरु सुने न कोई, बालक मन ही मन कहता है,
कक्षा में जो भी समझाते
उसका एक मॉडल हमें दिखाते
जो भी विज्ञान की बातें होतीं
थोड़ा - थोड़ा करके सिखलाते
मैथ में होतीं ढेरों पहेली
सोच - समझ कर हम सुलझाते
यदि मिलती शिक्षा ऐसे समझाकर
हम भी पढ़ते खूब मन लगाकर
इंग्लिश का इतना डर न देते
हिंदी कविताओं से भर देते
मोरल का सारा शिष्टाचार
सबको नमस्ते सबको प्यार
काश ! ये सपना न होता
नीरस बुक पढ़ना न होता
ले इतना वज़न चलना न होता
काश ! इतना हमें रटना न होता
यदि खेल खेल कर पढ़ना होता
तो, सोचो फिर कितना अच्छा होता
सीख भी लेते, पढ़ भी लेते हम
काश ! कोई ऐसे समझाता !
- प्रदीप कुमार तिवारी "साथी"
मात - पिता गुरु सुने न कोई, बालक मन ही मन कहता है,
कक्षा में जो भी समझाते
उसका एक मॉडल हमें दिखाते
जो भी विज्ञान की बातें होतीं
थोड़ा - थोड़ा करके सिखलाते
मैथ में होतीं ढेरों पहेली
सोच - समझ कर हम सुलझाते
यदि मिलती शिक्षा ऐसे समझाकर
हम भी पढ़ते खूब मन लगाकर
इंग्लिश का इतना डर न देते
हिंदी कविताओं से भर देते
मोरल का सारा शिष्टाचार
सबको नमस्ते सबको प्यार
काश ! ये सपना न होता
नीरस बुक पढ़ना न होता
ले इतना वज़न चलना न होता
काश ! इतना हमें रटना न होता
यदि खेल खेल कर पढ़ना होता
तो, सोचो फिर कितना अच्छा होता
सीख भी लेते, पढ़ भी लेते हम
काश ! कोई ऐसे समझाता !
- प्रदीप कुमार तिवारी "साथी"